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कविता

बाजार में कबाड़

आलोक पराड़कर


अब सिरहाने नहीं होती घड़ी
जिसकी एक सुरीली धुन
रोज सुबह हमें जगाती थी
कलाइयों पर भी इनके निशान कम होते हैं
फोन नंबरों वाली डायरियाँ भी अब किसी बक्से में बंद हो गई हैं
और गिनती-पहाड़ों से कभी हमें बचाने वाले
कलकुलेटर भी बीते दिनों की चीज बन गए हैं
मोबाइल फोन ने कर दिया है इन्हें हमारे बीच से बेदखल

वैसे, इनसे भी पहले जब आए थे कंप्यूटर
हमारी आसपास की बहुत सारी चीजों ने
उनके भीतर ही बना लिए थे अपने घर
डाकघर के आसपास सुबह से होने वाली
टाइपराइटरों की खट खट भी अब नहीं है

बताते हैं कि जब आए थे सिंथेसाइजर
फिल्म संगीत ने की थी क्रांति
संगीतकारों ने धीरे धीरे
अलविदा कर दिए थे अपने
सितार, शहनाई या सरोद के साजिंदे
कहीं पढ़ा था कि
हाथ काट लिया था
कई फिल्मों के पार्श्व संगीत में शामिल ऐसे ही एक
वायलिन के प्रसिद्ध संगतकार ने
और एक बाँसुरी वाले की बेटी ने कर ली थी
बार में नौकरी

हर क्षण बना रहता है खतरा
चलन से बेदखल हो जाने का
अपने सारे गुणों के बावजूद
बाजार में कबाड़ हो जाने का

 


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